प्रोटीन की बहस – अख़बार बनाम मिडिल क्लास
प्रोटीन की बहस – अख़बार बनाम मिडिल क्लास
अख़बार (गरजती आवाज़ में):-“40 की उम्र होते ही प्रोटीन लेना अनिवार्य है। बादाम, काजू, पिस्ता, फल और दही—ये सब रोज़ की डाइट में शामिल कीजिए। वरना शरीर जल्दी बूढ़ा हो जाएगा।”
मिडिल क्लास आदमी (कुर्सी से झटककर उठते हुए):-“अरे हुज़ूर! ज़रा ठहरिए। ये ‘अनिवार्य’ शब्द हमारे लिए गाली जैसा है। EMI अनिवार्य है, बिजली का बिल अनिवार्य है, बच्चों की फीस अनिवार्य है। अब इसमें बादाम भी अनिवार्य कर देंगे क्या?”
अख़बार (नाक चढ़ाकर):-“आप समझते क्यों नहीं? प्रोटीन से शरीर मज़बूत होगा, बुढ़ापा दूर रहेगा, हड्डियाँ ताक़तवर होंगी।”
मिडिल क्लास (हँसते हुए):-“हड्डियाँ ताक़तवर होंगी? हमारी हड्डियाँ तो हर महीने की किस्तें और जिम्मेदारियाँ पहले से ही उठा रही हैं। आप बताइए, EMI उठाने वाली हड्डियाँ और कितनी मज़बूत चाहिए?”
अख़बार (थोड़ा नाराज़ होकर):-“पर देखिए, एक सेब रोज़ खाइए। डॉक्टर भी यही कहते हैं।”
मिडिल क्लास (चुटकी लेते हुए):-“साहब, हम तो सेब को बाजार में देखकर ही पेट भर लेते हैं। पत्नी पूछ लेती है—‘सेब कितने के हैं?’ मैं कहता हूँ—‘इतने के कि अब बस बच्चों की किताबों से तुलना कर लो।’ फिर दोनों हँस देते हैं और हँसी से ही विटामिन सी पूरा हो जाता है।”
अख़बार (उपदेशक अंदाज़ में):-“देखिए, ड्रायफ्रूट ज़रूरी है। उसमें मिनरल्स होते हैं, हेल्दी फैट्स होते हैं। सुबह-सुबह बादाम भिगोकर खाइए।”
मिडिल क्लास (गंभीर होकर):-“भिगोकर तो हम भी खाते हैं। पर बादाम नहीं—महीने के आख़िरी दिनों में बचे हुए चने। वह भी पानी में भिगोकर खा लेते हैं। और भरोसा कीजिए, पेट उतना ही भरता है जितना बादाम से भरता होगा। फर्क बस दाम में है।”
अख़बार (थोड़ा लजाते हुए):-“लेकिन यह तो वैज्ञानिक शोध है कि प्रोटीन के बिना लंबी उम्र संभव नहीं।”
मिडिल क्लास (आँखें तरेरकर):-“ओ हो! वैज्ञानिक को एक दिन रिक्शा खींचवा दीजिए, एक दिन फैक्ट्री में मशीन पर खड़ा कर दीजिए। बिना बादाम और बिना ड्रायफ्रूट के भी उसकी हड्डियाँ चटक जाएँगी।
गरीब की लंबी उम्र का फॉर्मूला है—पसीना, मेहनत और उम्मीद। यही उसका प्रोटीन है। अब आप चाहें तो इस पर भी शोध छाप दीजिए।”
अख़बार (धीमी आवाज़ में):-“तो क्या आप कह रहे हैं कि गरीब और मिडिल क्लास को प्रोटीन की ज़रूरत नहीं?”
मिडिल क्लास (कटाक्ष भरी मुस्कान के साथ):-“अरे ज़रूरत तो है, लेकिन जेब इजाज़त नहीं देती। हमारे लिए प्रोटीन का नाम है—परिवार की मुस्कान।
हमारे बच्चों का पेट भर जाए, यही हमारा हेल्दी डाइट है। बीवी का डांटना, बॉस की फटकार और EMI का तनाव—यही हमारी रोज़ की जिम ट्रेनिंग है। और जब हम हँसते हैं, वही हमारा सबसे बड़ा ड्रायफ्रूट होता है।”
---
“तो जनाब, अगली बार अख़बार में यह मत लिखना कि ‘40 की उम्र के बाद प्रोटीन ज़रूरी है।’बल्कि ये लिखना कि ‘40 की उम्र के बाद अगर जेब में दम है तो प्रोटीन खाओ, वरना जिम्मेदारियाँ खुद-ब-खुद बुढ़ापा ले आएँगी।’याद रखो—गरीब और मिडिल क्लास की थाली में हँसी और मेहनत ही सबसे बड़ा प्रोटीन है।”
DB-ARYMOULIK
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें