अध्यात्म


मनुष्य के लिए अध्यात्म ही ऐसा माध्यम हैं जो उसे सकारात्मक जीवन जीने की कला से अवगत करता हैं... यदि मनुष्य भोजन की भांति या अपनी भौतिक लालसा की भांति अध्यात्म को नित्य जीवन में अपनाता हैं तो उसका हर प्रकार का संदेह मिट जाता हैं.

1. अध्यात्म का अर्थ

गीता (अध्याय 8, श्लोक 3) में भगवान कहते हैं:
“अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर।।
अध्यात्मं कर्मचाखिलम्।”

यहाँ अध्यात्म का अर्थ है – अपने स्वरूप (आत्मा) का ज्ञान और उसे परमात्मा से जोड़ना।

सरल शब्दों में अध्यात्म = आत्मा का स्वरूप + परमात्मा से संबंध की पहचान।

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2. गीता में अध्यात्म के मुख्य बिंदु

1. आत्मा और शरीर का भेद

अध्यात्म का पहला कदम है यह समझना कि “मैं शरीर नहीं, आत्मा हूँ।”

(अध्याय 2, श्लोक 20) आत्मा को न जन्म है, न मृत्यु।

2. परमात्मा का साक्षात्कार

आत्मा का वास्तविक लक्ष्य है परमात्मा (श्रीकृष्ण) से मिलन।

अध्यात्म का अर्थ है अपने अस्तित्व को भगवान के शरण में अर्पित करना।

3. अध्यात्म = स्वधर्म का पालन

गीता (अध्याय 3, श्लोक 35) में कहा है कि अपने स्वधर्म का पालन करना अध्यात्म का ही अंग है।

क्योंकि कर्म करते हुए भी आत्मा-परमात्मा का स्मरण बना रहे, वही अध्यात्म है।

4. योग और अध्यात्म

ध्यानयोग (अध्याय 6) में अध्यात्म को साधना के रूप में बताया गया है।

जब मन इन्द्रियों से हटकर आत्मा और परमात्मा में स्थिर होता है, वह अध्यात्म योग कहलाता है।
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3. संक्षेप में

गीता में अध्यात्म का अर्थ है:

आत्मा का बोध,

आत्मा और परमात्मा का संबंध समझना,

भगवान की भक्ति द्वारा जीवन जीना,

कर्म करते हुए भी ईश्वर का स्मरण बनाए रखना।

👉 अध्यात्म = “मैं कौन हूँ?” इस प्रश्न का उत्तर पाकर अपने असली स्वरूप (आत्मा) को पहचानना और ईश्वर से जोड़ना।
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बहुत गहरी और सुन्दर बात पूछी आपने – “मैं कौन हूँ?”
दरअसल, पूरा श्रीमद्भगवद्गीता इसी प्रश्न का उत्तर देती है।

श्रीकृष्ण ने अनेक श्लोकों में आत्मा (स्वयं का वास्तविक स्वरूप) का वर्णन किया है।
नीचे मुख्य श्लोक दिए जा रहे हैं:
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1. तू आत्मा है, शरीर नहीं

📖 गीता अध्याय 2, श्लोक 13
“देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति।।
👉 इसका भाव यह है कि जैसे शरीर में बचपन, जवानी और बुढ़ापा आता है, वैसे ही मृत्यु के बाद आत्मा नया शरीर धारण करती है।
अर्थ: मैं शरीर नहीं हूँ, बल्कि उसमें निवास करने वाली आत्मा हूँ।
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2. आत्मा अमर है

📖 गीता अध्याय 2, श्लोक 20
“न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।

👉 आत्मा न जन्म लेती है, न मरती है, वह शाश्वत और अमर है।
अर्थ: मैं आत्मा हूँ – नष्ट न होने वाला।
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3. आत्मा अजर-अमर, अविनाशी

📖 गीता अध्याय 2, श्लोक 23–24
“नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।

👉 आत्मा को कोई अस्त्र-शस्त्र काट नहीं सकता, न आग जला सकती है, न जल भिगो सकता है और न वायु सुखा सकती है।
अर्थ: मैं शुद्ध आत्मा हूँ, जिसे कोई नष्ट नहीं कर सकता।
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4. आत्मा और परमात्मा का संबंध

📖 गीता अध्याय 15, श्लोक 7
“ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।
मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।

👉 श्रीकृष्ण कहते हैं कि सभी जीवात्माएँ मेरी ही सनातन अंश हैं।
अर्थ: मैं भगवान का अंश हूँ – परमात्मा से जुड़ी आत्मा।
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✅ संक्षेप में गीता का उत्तर:
“तू शरीर नहीं, बल्कि शाश्वत आत्मा है। आत्मा अमर, अविनाशी और परमात्मा का अंश है।”

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🌸 गीता के आधार पर मनुष्य के मुख्य कर्तव्य

1. स्वधर्म का पालन करना

📖 अध्याय 3, श्लोक 35
“श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।

👉 अपने कर्म, अपने कर्तव्य (चाहे अपूर्ण क्यों न हो) को करना श्रेष्ठ है।
कर्तव्य: अपनी भूमिका – जैसे विद्यार्थी, गृहस्थ, माता-पिता, नागरिक आदि – को ईमानदारी से निभाना।
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2. कर्म करते रहना, फल की आसक्ति न रखना

📖 अध्याय 2, श्लोक 47
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।।

👉 मनुष्य का कर्तव्य है कर्म करना, परिणाम भगवान पर छोड़ देना।
कर्तव्य: कर्मयोगी बनना – मेहनत करना पर लोभ/फल की चिंता न करना।
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3. समाज और परिवार के प्रति उत्तरदायित्व

अध्याय 3, श्लोक 20
“कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि।।

👉 जैसे राजा जनक ने अपने कर्म से ही सिद्धि प्राप्त की, वैसे ही समाज की भलाई हेतु कर्म करना भी मनुष्य का कर्तव्य है।
कर्तव्य: परिवार और समाज के कल्याण के लिए ईमानदारी से काम करना।

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4. भक्ति और स्मरण

अध्याय 9, श्लोक 34
“मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।।

👉 भगवान का स्मरण करना, भक्ति करना, नमस्कार करना, यह भी मनुष्य का परम कर्तव्य है।
कर्तव्य: जीवन का अंतिम लक्ष्य – ईश्वर से जुड़ना।

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5. आत्मसंयम और सद्गुणों का पालन

अध्याय 16 (दैवी संपत्तियां)

अभय (निर्भयता),

सत्य,

करुणा,

दान,

आत्मसंयम,

अहिंसा,

क्षमा।

👉 ये गुण मनुष्य के कर्तव्य हैं जिन्हें अपनाकर वह जीवन को सफल बनाता है।

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✅ सारांश

गीता के अनुसार मनुष्य के मुख्य कर्तव्य हैं:

1. स्वधर्म – अपनी जिम्मेदारियों का पालन।

2. कर्मयोग – कर्म करना, फल की आसक्ति छोड़ना।

3. लोकसंग्रह – समाज और परिवार का भला करना।

4. भक्ति – भगवान का स्मरण और शरणागति।

5. दैवी गुण – सत्य, दया, क्षमा, आत्मसंयम को जीवन में धारण करना।

👉 गीता सिखाती है कि “कर्तव्य पालन + भक्ति = जीवन का सच्चा धर्म।”

क्रमशः-

प्रेम और वासना
Shri vedik zone

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