पितृ कृपा


द्वादश भाव (पितृ ऋण या वरदान)

पिछली पोस्ट पर जब द्वादश भाव और ऊर्ध्व लोकों की ओर पितृ लोक, पितर ऋण, दैवीय कृपा के रूप में बताया तो आप सभी के बहुत से प्रश्नों की लड़ी लग गई....

उसी बात को स्पष्ट करते हुए... हम आगे की वार्ता शुरू करते हैं..

सबसे पहले ऐसे लोग कन्फ्यूज न हों जिनके द्वादश भाव में एक से अधिक ग्रह बैठे हों...तो क्या होगा, अनेकों प्रकार के प्रश्न.. कि मैं मोक्ष पा पाऊंगा या नहीं..

अरे...!! इतना सरल थोड़ी है मोक्ष पाना पर दूसरी तरफ से देखा जाए तो सरलता ही मोक्ष का साधन है

चलिए यहीं से आरंभ करें यदि द्वादश भाव में एक से अधिक ग्रह हैं तो जातक का क्या होगा..??

जैसे ग्रह वैसे उसकी हैसियत और वैसा ही उसका पेंडिंग कर्म होता है...

अब जैसे आपने जन्म लिया और आपने अच्छे कर्म किए खूब दान पुण्य पुरुषार्थ किया.. पर मनुष्य जीवन मिला ही इसलिए है ताकि हम खोज सकें अपने कर्म जो अधूरे हैं उनको पूरा कर सकें और इस संसार में रहते हुए निर्लिप्त रहकर मोक्ष को प्राप्त कर सकें...

अब मोक्ष सुनने में तो बहुत आध्यात्मिक शब्द लग रहा है और है भी पर नीरस बिलकुल नहीं..आप सोचते हैं यहां धरती भू लोक के सुख में बहुत मजा है आखिर मोक्ष साधु संतों का काम है तो मैं हंसता हूं इस मनुष्य की बुद्धि पर अरे तेरे पास तो पूरा ब्रह्माण्ड पड़ा है तूने 2 बीघे जमीन के लिए अपनो की हत्या कर डाली... अपने जरा से लालच इच्छा को पूरा करने के लिए मनुष्य इस संसार के मायाजाल(राहु) में फसता जाता है...

पहले आपको समझाता हूं कि ऐसा क्या संबध होता है हमारे पितरों से हमारा...


जैसे माना हमने एक घर में जन्म पाया है पर उसी घर में हमारे पहले भी कई लोग जन्म पा चुके होंगे, मृत्यु के बाद उनकी आत्मा के ऊपर मन की परत पर माया रूपी पाप की गंदगी चिपक जाती है, इसकी धुलाई और सफाई के लिए भू लोक से खींची हुई आत्मा को...जो सूक्ष्म शरीर यानी मन यानी चंद्र की परत में यानी layering ke भीतर रहती है.. उसके ऊपर चंद्र यानी सूक्ष्म शरीर के ऊपर पाप रूपी मैल जमा होती है जो हमारी धरती पर छूटी हुई इच्छाओं को दर्शाता है और कर्मों को भी...इनमें से कुछ पाप बहुत घोर होते हैं कुछ की सजा आपको अन्य योनियों में भेज कर आपको दे दी जाती है... फिर जब आपके इतने पाप नष्ट हो जाएं यातना शरीर में जैसे प्रेत, पिशाच, सुअर, कुत्ता, जो भी जैसा भी कर्म किया हुआ हो आपने उसके अनुसार उतने उतने दिन का भोग मिलकर आपको वापस जब पाप और पुण्य का पलड़ा बराबर पर आ जाता है आपको पुनः पृथ्वी लोक/भू लोक पर भेज दिया जाता है ताकि भू लोक पर जो भार या कर्ज आपने दूसरे से लिया चाहे रोग देकर, शत्रुता या ऋण से पहले जा कर उसको भोगना और अगर वहां रहकर मोक्ष प्राप्त करने का मार्ग खोज लिया तो उत्तम अन्यथा अच्छे कर्म करेंगे तो भोग योनियां और भी हैं उसमें आपके मृतोपरांत आपको ऊर्ध्व लोकों जैसे सूर्य लोक, स्वर्ग लोक आदि में अच्छे भोग भोगने के लिए भेज दिया जाता है...पर कुछ समय बाद आपके जब पुण्य कर्म क्षीण होने लगते हैं भोगते भोगते तब आपकी हवा टाइट होती है, आप सोचते हैं स्वर्ग आदि लोक में इतना बढ़िया सुख सुविधा, प्रसन्नता, तरह तरह के भोग विलास की वस्तुएं हैं और अगर मेरे पुण्य क्षीण हो जाएंगे तो मुझे वापस मृत्यु लोक भेज दिया जाएगा, इसलिए अब उन ऊपर बैठे पितरों के पास एक ही आस रह जाती है, कि जिस कुल में वो लास्ट जन्म लिए थे, क्यूंकि और किसी का किया तो लगना नही है इसलिए वो अपना पूरा फोकस अपने कुल खानदान में पैदा हुए किसी ऐसे व्यक्ति को अपना निशाना बनाते हैं जो ऊपर बैठे पितरों के लिए उचित व्यवस्था कर सके, अगर वो भगवान का भक्त हुआ तो पितृ खुश हो जाते हैं क्योंकि अब वो स्वर्ग लोक से भी ऊपर प्रमोट हो जाते है, अगर वो मनुष्य पितरों के नाम पर श्राद या तर्पण हवन इत्यादि करते हैं तो यह पुण्य उन पितरों को और जैसे पैसा या valadity बढ़ जाती हो स्वर्ग या पुण्य लोकों में रहने के लिए...इसलिए अगर पितरों ने आपको चुना है तो वो आपकी मदद भी करते हैं पर पहले देख लेना चाहिए कि द्वादश भाव में बैठा ग्रह, द्वादशेष सूर्य
गुरु और राहु केतु क्या कर रहे हैं...

क्योंकि सभी ग्रह मिलकर कोई एक पूरी कहानी बताते हैं, 

जैसे गुरु से ज्ञान मिलता है, पर मोक्ष का ज्ञान कैसे मिलेगा...?
मोक्ष का भी ज्ञान गुरु के पास होता है क्योंकि वो मीन राशि का स्वामी है... पर गुरु की मूल त्रिकोण राशि धनु है..

इसका क्या मतलब...

क्योंकि 1 से लेकर 11 भाव तक सब भाव भू लोक या भू लोक से नीचे के हैं... खाना no 9 या धनु राशि भी इस भू लोक के अंदर के धर्म को दर्शाती है... कि धर्म के रास्ते पर कैसे चला जाता है.. 
इसलिए गुरु या कोई भी ग्रह कुंडली में है वो भू लोक की सीमा में भू लोक के नियमों और उनको शक्तियों से बंधा रहेगा, इसलिए भू लोक पर काम करने के लिए भूमि पुत्र मंगल चाहिए चाहे वो कोई भी हो..

"बड़े भाग मानुष तन पावा..."

ऊपर के देवताओं को भी यदि भू लोक पर आकर कोई कर्म पूरा करना होता है तो वो भी मंगल से शरीर उधार लेते हैं...

अब एक बात यहां ग्रह एक दूसरे से फल लेते देते रहते हैं... दिक्कत यहीं होती है कि कोई ग्रह जब किसी से कोई बड़ा वादा कर के बाद में उस वादे को पूरा नहीं करता तो यह डाटा भी उसके ऊपर या उसके खाते में एक कर्ज के रूप में लिख दिया जाता है...

अगर द्वादशेष नीच राशि में बैठ गया है यानी पितृ कोई आपका ऊपर से आया है और वो नीच राशि में है यानी उसके फल पुण्य फल क्षीण हुए हैं और अगर वही ग्रह नवमांश में जा कर उच्च हो जाए इसका मतलब वापस वो जिस लोक से आया होगा वहीं लौट जाएगा...

सूर्य देव... सूर्य लोक में(भगवान नारायण)
चंद्र देव... चंद्र लोक में(भगवती माता गंगा जी या जगतमाता के लोक)

मंगल देव (भौम लोक, जहां रक्षक, योद्धा और तमाम तरह के वीर पुरुष, आदि निवास करते हैं)

बुध देव... (गंधर्व लोक, गायन, वादन, अतः नारायण के पुत्र स्वरूप के रूप में बुध को भी नारायण माना गया है)

गुरु देव... ब्रह्म लोक, जन लोक, तप लोक, सत्य लोक को दर्शाते हैं...

बस इससे आगे कोई जाना चाहेगा तो उसे इन सब लोकों का मोह त्यागना पड़ेगा... 

शनि देव... सीधा संबंध बनता है शिव जी से शिव लोक से...

शुक्र देव का संबंध श्री यानी लक्ष्मी जी के संबंध से प्रदत्त है या भगवान की पत्नी या प्रेमिका के रूप में शुक्र तत्व का असर रहता है...

राहु देव... आपको इस सृष्टि की माया में कहीं न कहीं फसता है
और केतु हर जगह से निकालने का प्रयास करता है केतु को किसी भी लोक से पूर्ण संतुष्टि नहीं होती.. वो पूर्ण मोक्ष पर काम करता है...

अब बात यह है कि एक तो कोई ग्रह या तो मीन राशि या द्वादश भाव पर गुरु की दृष्टि पा रहा हो तो उस ग्रह को आगे के सभी लोकों के विषय में जान सकता है, पर इच्छा सूर्य पर आकर रुकेगी..

क्योंकि सूर्य आत्मा है और असली आपके दिल में कौन से भगवान का स्वरूप बैठा है भगवान का स्वरूप बैठा भी है या आप निराकार के उपासक हैं...

या तो पंचम भाव में बैठा ग्रह आपके हृदय में यानी आपके अंदर किस स्वरूप का अंश बंध है...

आत्मकारक ग्रह भी आपके आत्मा के अंदर किस ब्रह्म का स्वरूप सुरक्षित है...

वैसे सूर्य ही आत्म है यह सत्य है आप सूर्य को निराकार मान लो... एक प्रकाश पुंज परमात्मा

अब सूर्य के ही सब परिवार के हैं तो... वही आत्मा का परिवार एक स्वरूप में सभी एक ही तत्व को दर्शाते हैं...

मंगल देव... हनुमान जी... (मेष राशि)भूमि पुत्र... काल भैरव(वृश्चिक राशि)

सूर्य देव... (निराकार परब्रह्म.. परम पिता परमेश्वर... सूर्य नारायण, भगवान विष्णु, श्री हरि या श्री राम चंद्र जी अवतार रूप में)

गुरु देव... (ब्रह्मा जी, गुरु, आचार्य, सदगुरु, भगवान ही गुरु आचार्य रूप में भक्तों को ज्ञान दे कर मोक्ष की दिशा दिखाते हैं)

चंद्र ... (माता जी, जगतम्बा, गंगा जी)

इसी तरह सभी ग्रहों के अलग अलग लोक हैं

अब देखना यह है कि अगर चंद्र जैसे द्वादश में बैठा या कोई भी ग्रह द्वादश में ऐसे ही नही बैठता है वो दिखाता है कि आपके ऊपर ... ऊपर कहीं दूर से नजर रखी जा रही है...

जो ग्रह स्वराशि का होकर द्वादश में बैठा है यानी वो ग्रह है तो अपने ही लोक में सुरक्षित है स्टेबल है पर वो जिस नक्षत्र में होगा वहां से पता चलेगा कि वो ग्रह आपसे क्या विशेष चाहता है...

द्वादशेष का कार्य पूरा कर दो तो वो आपको दैवीय सहायता तक प्रदान करने में सक्षम होते हैं..

केवल पंचम भाव की सहायता और मजबूती और गुरु बल से हम इसी जन्म में ब्रह्म लोक को भी भेदकर सदा के लिए इस जीवन मरण बंधन से छूट सकते हैं अतः अपने आत्म स्वरूप का बोध करें...

ऐसा नही है कि जो ग्रह द्वादशेष होकर द्वादश में है तो वो भी स्टेबल ही है यानी वो अपने धाम में हैं उन्हें मोक्ष की आवश्यकता नही वो अपने धर्म को अपने रोल को निभाने के लिए ही बने होते हैं...

आगे जारी.....है...
Shri astroprofessor-db


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